भगवान विष्णु देवर्षि नारद से कहते हैं- मैं न वैकुंठ में निवास करता हूं, न ही योगियों के ह्रदय में… मैं तो उन भक्तों के ह्रदय में निवास करता हूं, जहां वह तन्मय होकर, सब कुछ भूलकर, मुझे भजते हैं, मेरा संकीर्तन करते हैं। और इस बात की पुष्टि ‘स्कन्दपुराण’ में इस भगवद वचन से श्री भगवन्नाम की महिमा और भी स्पष्ट हो जाती है…
अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है- मन, कर्म, वाणी से होने वाले जितने भी पाप होते हैं, वह सभी पाप श्री गोविन्द नाम संकीर्तन में विलीन हो जाते है, मन अश्रुपात के बाद निर्मल बनकर उभकर प्रकट होता है। ऊर्जा से भरा हुआ। योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त मुझे अनन्य भाव से भजता है, मैं उसके सभी पापों को हर लेता हूं। यही मेरे प्रभु राम सुंदरकांड में कहते हैं…
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। यही नहीं सुंदरकांड से पहले अयोध्या कांड में भी इसका समानार्थी सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है… जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है- मन, कर्म, वाणी से होने वाले जितने भी पाप होते हैं, वह सभी पाप श्री गोविन्द नाम संकीर्तन में विलीन हो जाते है, मन अश्रुपात के बाद निर्मल बनकर उभकर प्रकट होता है। ऊर्जा से भरा हुआ। योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त मुझे अनन्य भाव से भजता है, मैं उसके सभी पापों को हर लेता हूं। यही मेरे प्रभु राम सुंदरकांड में कहते हैं…
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। यही नहीं सुंदरकांड से पहले अयोध्या कांड में भी इसका समानार्थी सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है… जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
अब सवाल उठता है भला कलयुग में ऐसा भाव कैसे जगे, ऐसे में हमें आवश्यकता हैएक ऐसे व्यक्ति या समूहों की जो अपनी भरपूर ऊर्जा के साथ सभी को प्रभु की भक्ति की ओर मोड़ने का सामर्थ्य रखता हो।अब ये प्रभु का काम है तो प्रभु कराते भी रहते हैं। ऐसी ही एक यात्रा 33 वर्ष पहले आरंभ हुई। वो भी कहां से...भारत के राजनीतिक केंद्र दिल्ली से। ये अपने आप में अद्भुत है। हो भी क्यों न… क्योंकि राजनीति और अध्यात्म सर्वथा बेमेल ही माने जाते हैं। लेकिन भारत की ऋषि परंपरा ने इसे कभी बेमेल नहीं माना। ऐसा मानना पाश्चात्य जगत का था, जिसकी वो सज़ा भुगत भी रहा है। लेकिन भारतवर्ष को हमेशा से ही सांसारिक और आध्यात्मिक शक्तियों के संतुलन का सबसे बड़ा केंद्र रहा है। जहां प्रत्येक युग में कई महान विभूतियों ने जन्म लिया और सांस्कृतिक क्रांति की अलख जगाई…
ऐसी ही एक अलख दिल्ली के केशवपुरम क्षेत्र में आधुनिक संत और आध्यात्मिक ऋषि श्री हरिॐमुंजाल ने जगाई… एक ऐसा बीज रोपा और जिसेनिरंतरभक्ति रूपी खाद और जल देकर अपने सामने ही वटवृक्ष भी बना दिया।आपको आश्चर्य होगा, जिसका माध्यम बना रामचरितमानस। मानस में भी प्रभु श्रीराम को सर्वाधिक प्रिय सुंदरकांड। श्री हरिॐमुंजाल जी ने सतत् तपस्या के माध्यम से एक ऐसे समूह को तराशा, जिसने अटल, अखंडरहते हुए सभी मतभेदों और मनभेदों पर विजयश्री प्राप्त की। जैसे कोई शिल्पकार अनघड़ पत्थरों को तराशकर उनमें से सुंदर-सुंदर मूर्तियों को निकालकर लाता है,बिल्कुल वैसा ही श्री हरिॐमुंजाल जी ने किया। इसके लिए मुंजाल जी अपने माता-पिता के संस्कार और पूर्व जन्मों के अच्छे कर्मों के संचित फल को इसका श्रेय देते हैं। इस तरह‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ धीरे-धीरे अपना स्वरूप लेने लगा। भारतीय संस्कृति प्रेरणा नाम अपने आपमें कितना सार्थक है। भारतीय संस्कृति की प्रेरणा देने वाले बिंदुओं में से,आधुनिक समय में सबसे बड़ा आधार है गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस। और इस ग्रंथ का पांचवा अध्याय सुंदरकांड तो कलयुग का ‘कल्पवृक्ष’ ही माना जाता है।
श्री हरिॐमुंजाल जी के साथ जब यह समूह साथ बैठकरसुंदरकांड को गुंजायमान करता है तो सामूहिक पाठ में साथ बैठे सभी भक्तों की मानो समाधि लग जाती है। यह इस कलयुग में अपने आपमें अभूतपूर्व है। क्योंकि यह समाधि किसी कुंडलिनी जागरण से कम नहीं होती। कुंडलिनी जागरण के लिए घनघोर तपस्या करनी पड़ती है। वहीं जब श्री हरिॐमुंजाल और उनका समूह सुंदरकांड पाठ कागायन करता है तो फिर वो रामेश्वरम में उठती लहरों के समान हो जाता है। स्वर लहरियां एक-दूसरे को पकड़कर आगे बढ़ती सी प्रतीत होती हैं।एक साथी जब सुंदरकांड की एक पंक्ति को छोड़ता है, तो दूसरा साथी उस पंक्ति के आखिरी छोर को पकड़कर आगे ले जाता है… और इस तरह सुंदरकांड पाठ निरंतर गतिमान रहता है।भक्ति संगीत जीवन की वह ऊंची अवस्था है, जिसे योग, हठयोग या दूसरे किसी साधन से इस युग में पाना उतना सरल नहीं है। लेकिन उसी उदात अवस्था को बड़ी ही आसानी से इस समूह में बैठकर,सामूहिक पाठ करने से प्राप्त किया जा सकता है। हो सकता है आपको ये अकल्पनीय लग रहा हो। यदि आप उस अवस्था को आत्मसात करना चाहते हैं तो फिर आपको अपने समय का भाव से दान देना होगा। बाकी आश्वस्त मैं करता हूं। अभी हाल ही में
जब‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ का 33वां वार्षिक समारोह हुआ, तब बहुत सारी छिपी और अनकही बातों का उद्घाटन मेरे सामने हुआ। दिल्ली के जिस केशवपुरम में यह आयोजन था, वहां का वातावरण बेहद दिव्य हो गया था।भक्तों का भारी जमावड़ा, सभी राम-नाम की मस्ती में डूबे हुए…रामचरितमानस को लेकर ऐसा दिव्य वातावरण, वास्तव में अकल्पनीय था… अभूतपूर्व तो भक्तों ने बना ही दिया। ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ के वार्षिक उत्सव के दिन जो देखने को मिला, वह अपने आप में किसी भी प्रभु भक्त को रोमांचित कर सकता है। क्योंकि ऐसा दिव्य वातावरण कभी एक दिन में बनता नहीं है। इसके लिए नींव में समाए हुए वे पत्थर उत्तरदायी होते हैं, जो बिना यश की कामना लिए, बुनियाद में समा जाते हैं। हम उन सभी नींव के पत्थरों को प्रणाम करते हैं, जिन्होंने इस यात्रा को यहां तक लेकर आने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन सभी प्रभुभक्तों की तरफ बस यही प्रार्थना है-
तुम्हहि नीक लागै रघुराई।सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
वर्षों का समर्पित परिश्रम होता है तब जाकर ऐसे दिव्य वातावरण की अनुभूति होती है। इसमें प्रभु का आशीर्वाद तो अनिवार्य है ही।
कुछ युवकों ने 1985 में अचानक बैठे-बैठे यह सोचा क्यों ना हम समाज को कुछ दें, इस जीवन को प्रभु से रूठ जाने से बचाएं। समाज की निधि समाज को पुनः लौटाएं। ऐसे में श्री हरि ॐ मुंजाल जी बताते हैं- जिस दिन पहला शनिवार था, जब उन्होंने संगीतमय सुंदरकांड पाठ को आरंभ किया, उसी दिन अगले 6 महीने के लिए मित्रों ने, दोस्तों ने अपने यहां सुंदरकांड कराने का निश्चय कर लिया, जिससे उस समय सांसारिक युवा रहे, आज के आध्यात्मिक युवाओं का उत्साह सातवें आसमान पर पहुंच गया, उत्साह सातवें आसमान पर और हनुमान जी की कृपा अनुभव… फिर क्या था, निकल पड़ा कारवां एक ऐसे लक्ष्य की तरफ जहां सभी कुछ राममय हो जाता है...
वर्तमान समय में जीवन को संस्कार देने वाला एकमात्र सर्वमान्य ग्रंथ है रामचरितमानस… और इस समूह ने संकल्प लिया मानस के सुंदरकांड को व्यक्तिगत तौर पर घर-घर में पहुंचा देंगे।आज उस प्रयास को 33 वर्ष हो गए। आप सोचिए इतनी लंबी यात्रा में क्या कोई विघ्ननहीं आया होगा?
जरूर आया होगा लेकिन सभी तरह के विघ्नों पर विजय प्राप्त करते हुए यह यात्रा अविरल चलती रही और आज भी जारी है। इस यात्रा में जुड़ने वाला एक-एक व्यक्ति अपने आप में अनूठा है। क्या बच्चे, क्या युवा क्या बुजुर्ग… सब अनथक इस यात्रा में शामिल है। सभी समरस होकर इस महा अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि आप एक बार इनके साथ बैठकर और स्वयं अनुभव करें, तो आप पाएंगे कि सामूहिक सुंदरकांड वास्तव में क्या होता है ? ऐसी अप्रतिम ऊर्जा निकलती है, जिसे आप साक्षात् अनुभव कर पाएंगे… और ये कहा भी गया है कि कलयुग में सामूहिक शक्तियां बढ़िया से काम करती हैं। फिर चाहे वह साकारात्मक हों या नकारात्मक…
आजकल एक ऐसा अनुभव भी देखने को आया है कि सामूहिक सुंदरकांड के नाम पर एक व्यक्ति ही पढ़ता रहता है और पीछे भक्त दोहराते हैं। इसमें भी कोई बुराई नहीं है। क्योंकि प्रभु का नाम तो कैसे भी लेना मंगलकारी ही है। फिर भी जिसमें सामूहिकता का भाव नहीं है, वहां पर संसार की साकारात्मक शक्तियों के दक्ष होने की संभावना कम हो जाती है।
‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ इसी सामूहिकता के भाव को जगाने के प्रयास में अविरल लगा हुआ है। जब यह समूह सुंदरकांड गायन में तल्लीन होता है तब आप महसूस कर सकते हैं कैसे एक पंक्ति का अवरोह दूसरी पंक्ति के आरोह में घुल जाता है। मानो समुद्र की लहरें संगीत के साथ लयबद्ध होकर नर्तन करने लग जाती हैं।
कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।
राम-नाम की मस्ती में डूबकर इस संसार में रहकर भी विदेह हुआ जा सकता है। अर्थात विरक्ति से प्रीति लगाई जा सकती है। विरक्ति से प्रीति पाने के लिए आज हमारे पास आधुनिक विदेह संत विद्यमान हैं। श्री हरि ॐ मुंजाल जी के रूप में…
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ। जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
श्री हरि ॐ मुंजाल जी के सिद्धहस्त साथी श्री सुरेंद्र अंगरस जी, जो कहते हैं- मुझे कोई भी जन्म मिले लेकिन राम के श्री चरणों में ही भक्ति मिले। आह हा, ऐसा सुंदर भाव।
सीता रूपी भक्ति को पाने के लिए आञ्जनेय रूपी राम भक्त की भक्ति से संसार की समस्त रचनाओं को साकारात्मक बनाया जा सकता है। यह सुरेंद्र अंगरस जी का चट्टान जितना अडिग मजबूत विश्वास है। स्वरों के मनोहारी प्रयोगों को लेकर सदैव सजग रहते हैं। सहज तो इतने हैं कि इनसे मिलकर लगता ही नहीं कि आप पहली बार मिले हों। इनकी एक और विशेषता है जिसे मैं थोड़ा सा जान पाया, अंगरस जी शब्दों के भी जादूगर हैं। इस कड़ी में एक-एक नाम बड़े ही सुमधुर हैं। फिर चाहे वो सुरेंद्र भाटिया जी हों, नरेश सूद जी हों, राजेश शर्मा डी, नीलू जी, रमिता जी, श्रुति नारंग जी हों, शिवांश हों या फिर सुपर्णा लाल। ये सभी वे कंचन मणियां हैं जिन्हें मैं थोड़ा-थोड़ा समझ पाया हूं। जानने की तो अभी यात्रा शुरू ही हुई है।
‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ का प्रबंधन भी उच्चकोटि का है। फिर वो चाहे सांगठनिक प्रबंधन हो या फिर वित्तीय। जिसमें श्री हरीश लाल जी के साथ मेरा परिचय सबसे पहले आया। मेरे लिए हरीश जी तो मेरे हनुमान जी जैसे हैं, जिन्होंने मुझे प्रभु के अनन्य भक्त श्री हरि ॐ मुंजाल जी से मिलवा दिया… जो सुंदरकांड गायन के समय विदेह हो जाते हैं। उन्हें ऐसी अवस्था में देखना किसी का भी सौभाग्य हो सकता है। यह मैं अपना अनुभव बता रहा हूं। कभी आपको यदि यह अवसर मिले तो उसे किसी भी परिस्थिति में हाथ से निकलने मत देना।
‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ का एक-एक सदस्य हनुमान जी के गले में पड़ी हुई माला के वो दाने हैं जिसके एक-एक मनके में राम नाम स्पष्ट रूप से अंकित है। आज देश के लगातार विषाक्त होते जा रहे वातावरण में हमें दिल्ली के लिए कम से कम 1000 और पूरे भारतवर्ष के लिए 10 हज़ार हरि ॐ मुंजाल चाहिए… जो चलते-फिरते संगठनकर्ता हों। हमें इस बात के लिए परिश्रम रूपी तपस्या करनी ही होगी ताकि हम भारत के वातावरण को सुरम्य बना पाएं। तभी जाकर हमारा बहु-प्रतीक्षित सपना- श्रीरामचरितमानस को प्रत्येक हिंदू परिवार में पहुंचाने का पूरा हो पाएगा।
और यह जब तक पूरा नहीं हो जाता तब तक विश्राम का कोई अर्थ नहीं है। राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहां विश्राम… हनुमान जी से हमारी प्रार्थना है कि वो हमें वह ताकत दें जिससे हम इस कार्य को द्रूत गति से आगे बढ़ा पाएं।
प्रभु से प्रार्थना है कि ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ को इस काम करने की सबसे बड़ी धुरी बना दें। प्रभु ने अपना विराट रूप द्वापर में दिखाया, वही विराट रूप कलयुग में भी दिखाने की कृपा करें।
कि सूर अनेक फिरें कण मांगत
सूर के पद को स्वाद कहां ।
पुनि ताल मंजीरा बजाती फिरी
मीरा मतवारी की चाह कहां।।
सियाराम कथा, कितनों ने लिखी
तुलसी जैसी मरजाद कहां।।
नरसिंह बसे प्रति खंबन में
आप प्रहलाद तो बनिये, फिर देखिए प्रभु कैसे नहीं मिलते हैं। और वह पह्लाद बनाने का वातावरण कौन प्रदान कर रहा है ? सीधा का नाम है ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’
सुंदरकांड- चमत्कारिक प्रभाव देने वाला काव्य सुंदरकांड को समझ कर उसका पाठ करें तो हमें और भी आनंद आएगा। सुंदरकांड में 1 से 26 तक जो दोहे हैं , उनमें शिवजी का अवगाहन है , शिवजी का गायन है , वो शिव कांची है। क्योंकि शिव आधार हैं, अर्थात कल्याण। जहां तक आधार का सवाल है , तो पहले हमें अपने शरीर को स्वस्थ बनाना चाहिए , शरीर स्वस्थ होगा तभी हमारे सभी काम हो पाएंगे। किसी भी काम को करने के लिए अगर शरीर स्वस्थ है तभी हम कुछ कर पाएंगे , या कुछ कर सकते हैं। सुंदरकांड की एक से लेकर 26 चौपाइयों में तुलसी बाबा ने कुछ ऐसे गुप्त मंत्र हमारे लिए रखे हैं जो प्रकट में तो हनुमान जी का ही चरित्र है लेकिन अप्रकट में जो चरित्र है वह हमारे शरीर में चलता है। हमारे शरीर में 72000 नाड़ियां हैं उनमें से भी तीन सबसे महत्वपूर्ण हैं। जैसे ही हम सुंदरकांड प्रारंभ करते हैं- ॐ श्री परमात्मने नमः, तभी से हमारी नाड़ियों का शुद्धिकरण प्रारंभ हो जाता है। सुंदरकांड में एक से लेकर 26 दोहे तक में ऐसी ताकत है , ऐसी शक्ति है... जिसका बखान करना ही इस पृथ्वी के मनुष्यों के बस की बात नहीं है। इन दोहों...
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